सोमवार, अगस्त 08, 2011

और मै अक्सर ५ रुपये फिर दे कर आ जाता हूँ..


मई-जून का गर्मी भरा महीना था,सूरज आग बरसाए जा रहा था,और वो गर्मी मैं दिन भर बैंक में ए.सी.वाले कमरे में दिन भर बैठे रह कर भी महसूस कर रहा था,शाम को चाय पीने बाहर निकलना तो मेरा बहाना था दरअसल मैं शाम का मजा लेना चाहता था,बैंक के २-४ दुकानों बाद ही चाय की दुकान थी,उस दुकान की चाय बहुत अच्छी रहती थी,और शाम को अक्सर काफी भीड़ रहती थी वहाँ पर, वहाँ चाय की चुस्कियों के साथ आस-पास अवलोकन करने में मुझे बड़ा मजा आता था, बैंक से निकल के दुकान तक पहुचने में तो खास गर्मी नहीं लगी,पर जब दुकान तक पंहुचा तब वास्तविक गर्मी से २-४ हुआ, शायद इसी लिए इक्के-दुक्के लोग ही वहाँ पहुंचे थे,इस दुकान में अक्सर चिल्हर की कमी रहती थी,जब मैं दस रुपये चाय के देता था तो वह बोलता चेंज नहीं है क्या सर..उस पर मैं कहता जमा रहने दो कल चाय पी लेंगे..और अगले दिन मैं कहता भैया कल का जमा था | मैं चाय मांगने उसके दुकान के भीतर गया, देखा तो बड़ी सी कड़ाई पर गरम समोसे तले जा रहे थे,मेरे चाय मांगने और उसके केतली से चाय कप में देने में बमुश्किल आधा मिनट लगा होगा पर कड़ाई की आंच से दुकान के अंदर खड़ा रहने में पसीने आ गए, मैंने एक चाय मांगी और दुकान से थोडा दूर बाहर निकलकर चुस्कियां लेने लगा, पर गर्मी इतनी थी की चाय में कुछ खास मजा नहीं आ रहा था,और माहोल भी थोडा वीरान था, बैंक में आज काम भी ज्यादा था, सो जल्दी चाय खत्म करके जाने के चक्कर में था मैं, आधी चाय खत्म हो जाने पर देखा की चाय वाला साइकिल उठा कर निकल पड़ा, मैं उसके दुकान की तरफ देखा तो उसकी पत्नी समोसे तल रही थी, चाय वाला काफी वृद्ध था और उसकी पत्नी चाय और नाश्ते बनाती और उसका पति लोगो को चाय नाश्ते देता और पैसे लेता था,मैंने जल्दी अपनी चाय खत्म की और पैसे देने दुकान की तरफ बढ़ा, पर दुकान के ठीक दरवाजे पर पहुच कर याद आया कि कल के ५ रुपये जमा थे, पर ये बात शायद उस चाय वाले को ही पता होगी, वृद्धा को नहीं मालूम होगा करके ठिठक गया, मैंने सोचा अगर मैं कहूँगा की ५ रुपये कल के बचे है तो पता नहीं वो क्या सोचेगी, हो सकता है वो संकोच वश कुछ कह ना पाए और उसे लगेगा की मैं मुफ्त के चाय पीकर खिसक लिया, फिर मैंने और आगे बढकर सोचा अरे यार कितने दिन से इनके यहाँ चाय पी रहा हूँ, जानती होगी की बैंक वाले हैं, और ये सोचकर मैं जहाँ वह वृद्धा समोसे तल रही थी वहाँ पहुँच गया, और फिर बेहद गर्मी का अहसास होने लगा, वृद्धा का धयान समोसे तलने में था, मेरे तरफ उसका ध्यान नहीं था, मै कुछ कहने ही वाला था की चाय वाला साइकिल से आता हुआ दिखाई दिया, मैंने सोचा चलो इसी को बता के निकला जाए, चाय वाला साइकिल के हैण्डल के दोनों तरफ डब्बे लटकाया हुआ साइकिल को पैदल चलाते हुए ला रहा था, दुकान के सामने पहुंचकर उसने साइकिल को स्टैंड लगाया और एक करके डब्बो को बड़ी मुश्किल से उठाते हुए दुकान के अंदर ले गया, मै कुछ कह ही नहीं पाया था की उसने अपनी पत्नी को कहा मै एक डब्बा पानी उअर ले आता हूँ, जवाब में उसकी पत्नी ने कहा नहीं इतने पानी से काम चल जाएगा तुम पसीने से भीग चुके हो घर से आराम कर के आ जाओ,जवाब में पति ने कहा तुम घर चली जाओ, तुम भी तो भीग गयी हो अभी भीड़ भी नहीं है, मैंने उस वृद्धा को देखा वाकई वो पसीने से तर-बतर हो गयी थी, मै जहाँ थोड़ी देर दुकान में खड़ा रहकर गर्मी को कोस रहा था, और ये वृद्ध और वृद्धा जाने कितनी गर्मी सहन कर रहे हैं, उस वृद्ध और वृद्धा को इतनी मेहनत करके मेरा दिल पसीज गया और मेरा दिल अजीब से दर्द से भर गया, जिसे मै शब्दों में बयान नहीं कर पाउँगा, मेरी हिम्मत नहीं हुई की उनको बोलूं की कल का पैसा जमा था, मैंने 5 रुपये निकले और बिना कुछ बोले उनको दे आया |

उस दिन के बाद जब भी वो दिन आता है जब चाय वाले के पास मेरे पैसे जमा होते हैं, मै हिम्मत नहीं कर पाता की उससे कहूँ की कल का जमा था भैया...पता नहीं लोग इसे मेरी बेवकूफी कहें, बचकाना हरकत कहें या कहें की इससे क्या होगा, पर मेरे अंदर एक दर्द सा महसूस होता है उन पति-पत्नी को देखकर..मैं कुछ कर भी नहीं पाता हूँ और कुछ नहीं भी नहीं कर पाता हूँ..  

मैं जो सोचता हूँ वो होता क्यों नहीं है,
अपने में ही डूबता उबरता क्यूँ हूँ,
हाथों की लकीरों का दोष है ,
या दोष है उन सपनों का,
जिनके बाद नींद से मैं जाग ना पाया |