रविवार, जनवरी 15, 2012
रविवार, जनवरी 01, 2012
रेतघड़ी
दिन बुरे नहीं थे जब पानी और सूरज घरो की छ्प्परें लाँघ जाते थे,
जब हवा भी बिन पूछे दरवाजा धेलकर अंदर आ जाती थी,
जब दिन की शुरूवात पंछियों के चहचाहट और रातें जुगनुओं की रौशनी से भरी होती थी,
जब सारा दिन यूँ ही दोस्तों के साथ और रातें हसीं ख्वाबो में काट दिया जाता था,
जब बारिश में खिड़कीयों के कांच पर उंगली से सन्देशे लिखे जाते थे,
जब हवाई जहाज की आवाज सुन छतों की ओर बेलगाम भागा करते थे,
जब कंचो,मीठी गोलियों, पतंगों का कुशल व्यापारी की तरह सौदा किया जाता था,
जब कब कहाँ आँख लग जाए पता नहीं चलता था,
दिन बुरे नहीं थे जब पानी और सूरज घरो की छ्प्परें लाँघ जाते थे,
काश कोई उल्टा सकता वक्त को रेतघड़ी की तरह |
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