मंगलवार, जून 19, 2012

उफ़ उनकी ये बेपरवाह नजरें..















ऐसा भी नहीं था की पहचान नहीं थी,
नजरें भी मिली थी, पर उन्होंने देखा ऐसे,
जैसे कोई किसी के दिए गुलदस्ते को एक बार देख, बस रख देता है,

फूलों के मुरझाने की भी वजहें होती हैं |

मंगलवार, जून 12, 2012

वही चार लोग..कहने वाले...


















जैसे वो गुजरे ज़माने की बातें थी,
किस्से कहानियो और किताबों की दुनिया,
वो बगीचों की शामे,
फिर वो खुली आँखों की नींद,
छतों पर बहाने बना कर टहलना,
बड़े-बड़े सपने देखना फिर थक के सो जाना,
दोष वक्त का नहीं,
दोष उनका है जिन पर,
निकम्मों को काम पर लगाने का ठेका है |