शनिवार, दिसंबर 04, 2010

क्या कहूँ..

बहुत दिनों से दुनियादारी में व्यस्त रहा तब लगता था कब जान छूटे तो जा कर ब्लोगिंग में शरण पाऊं, दूर रहने पर अजीब से उदासी छा गयी थी, जब वापसी हुई यहाँ तो २-३ दिन की हालत सही थी फिर मन उदास होने लगा, ब्लॉग लिखने का मन बना तो पहले अपना ही ब्लॉग पढ़ लिया और लगा की शर्म के मारे डूब मरें, जिन पोस्ट को काफी एक्साइटमेंट के साथ लिखा था जिन पर लोगो ने बहुत सुन्दर, बहुत बढ़िया, और तरह-तरह की टिपणियां कर रखी थी, बहुत अजीब प्रतीत हो रहा था, लगा की झट अपना नाम बदल दें और फोटो हटा दें थोड़ी देर गम के अँधेरे में पड़े रहें, थोडा उससे भी बोर हुए तो तस्सली देने को मन हुआ, वैसे भी अपने को कौन पढता है, और चलो कम से कम हिंदी के प्रचार में योगदान तो दिया, पर लगा इतने से भी काम नहीं चलेगा थोडा और सोचना होगा तो सोचा चलो अपने प्रोफाइल में ये लिख दिया जाए की मै कोई लेखक या कवि नहीं बस तन्हाई को दूर करने के लिए बातें बाँट लेता हूँ, निराश तो था ही मै, पर देखा किसी ब्लॉग पर लिखा था “जो तुम में है, वह संसार में और भी है” पहले पढ़ा तो बकवास लगा फिर और ब्लोग्स देखते जा रहा रहा था चिट्ठाजगत पर थोड़ी देर में लगा की बात सही है (ही ही ही )

बहुत अच्छी और बहुत बेकार में बहुत कम ही अंतर होता है,
पता नहीं मै नहीं समझ पाता या लोग मुझे नहीं समझ पाते |

वैसे भी आशावादी लोगो का जमाना है तो मै क्यों निराश होने लगा, हम रोज मनुष्य को मरते कटते देखते है फिर भी ऐसा लगता है ऐसा हमारे साथ नहीं होगा, चाहे कोई मर जाए कितना भी करीबी क्यों ना हो खाना-सोना के बारे में सोचना ही पड़ता है | सोचते-सोचते लगा चलो एक पोस्ट की संख्या ही बढ़ा दी जाए, ये सोचना बहुत बुरी चीज है, कभी रात के ३ बजे ये क्रिया होने लगती है तो कभी गुसलखाने में, कई लोग घर के अंदर सोचते है तो कोई सोचने के लिए बाहर भी जाता है, आप अच्छे से ध्यान देंगे तो ऐसे लोग भी मिल जायेंगे जो ना अंदर सोचते है ना बाहर, मतलब घर के चौखट में बैठकर बकायदा सोचने वाली मुद्रा लिए, जैसे कोई रामदेव बाबा का बताया आसन हो, और ट्रेन में अगर भूले भटके पहूँच गए तो लगेगा सोचने का मौसम आ गया है, सोचने वाले लोग सोच भी कितना लेते है, कभी दीपिका के साथ अन्टार्टिका जाने की सोच लेते है, तो कभी अभी-ऐश के बीच आ जाते है, तो कभी बेचारे अमिताब के साथ ही न्यूज़ीलैण्ड पंहुच जाते है, टेलिविज़न पर एक जनाब “खेले हम जी जान से” फिल्म के स्टाफ के साथ सवाल-जवाब कर रहे थे, उन्होंने पूछा की आप को १३ की उम्र में पंहुचा दिया जाए तो आप क्या करेंगे, किसी ने कहा चेस खेलेंगे किसी ने कहा पढाई करेंगे, एक जनाब काफी गंभीर दिखे उन्होंने कहा सोचेंगे, अब उनसे और पूछा गया की क्या सोचेंगे, ये तो सोचने की हद ही हो गयी अभी कैसे सोचे की तब क्या सोचेंगे, कुछ भी हो लेकिन सोचने की ताकत को तो मानना पड़ेगा, कभी आदमी को बुलंदियों पर पंहुचा देती है कभी पागल बना देती है, वैसे मै तो बचपन से ही सोचते आ रहा हूँ, जब मेरे साथी सोच नहीं सकते थे की सोचना क्या होता है, खुशी होती थी की मै कब से सोचता चला आ रहा हूँ करके, पर एक दिन मोबाइल पर sms पढ़ कर वह भी जाती रहा, वह कुछ इस प्रकार था क्या आप जानते हैं कौन है जिसने जन्म से पहले ही सोचना शुरू कर दिया था?? जन्म से पहले शब्द सुनने पर बस एक ही बात जेहन में आयी अभिमन्यु, पर ऐसा तो वर्णन नहीं था की वह सोचता भी था, चलो देखते है कौन था कह कर जब स्क्रीन स्क्रोल किया तो लिखा था द ग्रेट रजनीकांत | यह भी सोचना बड़ा रोचक होगा जब रजनीकांत ने ऐसे मेसेज देखे होंगे तब क्या सोचा होगा, अब अतिशयोक्ति वर्ग के फिल्मो पर क्या असर पड़ेगा यह भी एक सोचने का विषय ही है |खैर अब लगता है सोच-सोच कर और लोगो को सोचवा-सोचवा कर हमने काफी अपनी और आपकी बिजली बर्बाद कर ली |अब एक आखिरी जुल्म मुझे आपके ऊपर कर लेने दीजिए |

आज सुबह आँख खुलते ही आँगन पर देखा था तुझको,
नहाने के बाद भी आँखे मलती खड़ी थी तुम,
शाम को देखा तो तितलियाँ ढूंढ रही थी तुझको,
किसी ने तोडा होगा गुलाब का वह नया फूल,
आज वेलेंटाइन डे हैं ना |

एक और जुल्म मेरी खातिर सह लीजिए ना प्लीज..

सुबह देखा तो मेरा रुमाल नदारद था,
शायद कल शाम की बारिश उडा ले गयी होगी,
अभी यादों की महल फीकी नहीं पड़ी थी उसमे |

बस ये आखिरी..

आईने को भी किसी चेहरे को देखने का मन होता होगा,
उसे भी किसी सूरत से प्यार होता होगा,
आईने के टूटने का कोई और कारण निकल लेते है लोग,
दरअसल वो कम्बक्त भी किसी का मारा होता है,
जो टूट कर कम से कम हमदर्दी तो पा लेता है |

पाठकों से अनुरोध है की क्या-कहूँ जैसे कमेन्ट ना किया करें समझ नहीं आता हमको ये कमेन्ट, इससे पता ही नहीं चलता की बहुत अच्छा लिखा है इसलिए क्या-कहूँ कह रहे है या उनको हमारी रचना कूड़े का ढेर लगी जिसके बदबू से नाक के भार क्या-कहूँ कह रहें है |