ब्लॉग पर पिछले पोस्ट को लिखे काफी समय गुजर चुका है,वैसे तो जिस दिन पिछला ब्लॉग पोस्ट किया था उस दिन से ही इस पोस्ट की प्लानिंग हो गयी थी, पर समय ऐसा रहा की कुछ लिख नहीं पाया, त्यौहार फिर इंटरव्यू ,सब निपटा के फिर अभी अपने पुराने सीट पर बैठा हूँ |
बात उस समय की है जब मै क्लास ७ में पढता था, स्कूल के सामने बहुत बड़ा मैदान था जहाँ हम सब लंच की छुट्टी में खेला करते,और उस मैदान के बगल में जिसका घर था उसके मालिक का और हमारे स्कूल का विवाद था, उस घर के पिछवाड़े में एक और खाली मैदान था जो हमरे स्कूल के भवन से सटा हुआ था दोनों पक्ष का कहना था की ये जगह उनकी है, और सब बच्चे इस विवाद से बेपरवाह उस मैदान में भी खेला करते और प्राचार्य महोदय रोज सुबह प्रार्थना के वक्त अपने भाषण में हमें वहां ना खेलने को कहते |
शनिवार का दिन था, शनिवार को सहायक वाचन की दो क्लास लगती थी जिसमे इस साल गाँधी जी के बारे में पढाया जाना था, ठण्ड का मौसम था बाहर खेल भी चल रहा था मैंने खेलों में भाग नहीं लिया था और जिन-जिन लोगों ने खेलों में भाग नहीं लिया था वो सब क्लास में बैठे थे,करीब ८ -१० छात्र रहे होंगे और करीब ३-४ छात्रायें रही होंगी, बहुत से छात्र बाहर थे इसलिए शिक्षक कोई नयी चीज ना पढाते हुए सबको अपने किताब पढ़ने की हिदायत दे राखी थी और खुद शिक्षक अपने रजिस्टर में कुछ हिसाब किताब करने में लगे थे |
मैंने आस पास नजरे दौडाई सामने वाले बेंच के दो लडके ज़मीन पर चाक से बैठे-बैठे ही फुटबाल खेल रहे थे, उनके जूतों की टकराने की आवाज़ और दबी आवाज़ में हँसने की आवाज़ कभी तेज हो जाती तो मास्टरजी के डर से वो थोड़ी देर खेल रोक देते और फिर एक युद्ध की तरह एक दूसरे पर विजय पाने की कोशिश करते, उनके युद्ध से चाक के कई टुकड़े हो चुके थे और हर टुकड़े को लेकर एक नया खेल शुरू हो जाता,और लोगो को देखा तो वो चने की लड़ाई में व्यस्त थे,मानो कक्षा उनके लिए युद्धभूमि बन गयी हो, बेंच में छुप कर अगले पर चने रूपी बम की बारिश कर रहे थे, शोर बढ़ता जा रहा था, अब मास्टरजी के काम में खलल पढ़ी सजा तो मिलेगी ही, अब सभी सैनिक ज़मीन पर घुटने टेके हुए थे, अब सन्नाटे में बाहर खेलो की आवाजे स्पस्ट सुनाई देने लगी, मैंने आस पास के लडको को देखा तो वे मास्टरजी के सन्नाटे में सेंध लगाने की कोशिश में दिखे, सैनिको का हाल देख कर मैंने किताब का सन्नाटा तोडना ज्यादा फायदेमंद समझा, मैंने अपने आँखे किताब पर गडा दी, किताब गांधीजी के बचपन से शुरू हुई, मुझे गांधीजी के साधारण श्रेणी के विधार्थी होने पर आश्चर्य लगा और थोडा अपने नम्बरों पर गर्व भी, फिर गाँधी जी के बारे में पढ़ा उन्हें बचपन में बातें करना पसंद नहीं था, मुझे भी, अब मैंने गाँधी और अपनी तुलना करना चालू कर दिया, और इसमें मुझे बहुत आनंद आने लगा, गाँधी जी के बचपन की बातें उनका विवाह उनकी हाईस्कूल की पढाई, उनके सत्य के अनुप्रयोग सब रोचक लगने लगा, मैं किताब में इतना खो गया की आस पास की कोई सुध नहीं रही, लंच की बेल बजी तो मेरा ध्यान टुटा, मैंने किताब बंद की और गांधीजी के सत्य के प्रयोग के बारे में सोचने लगा, गाँधी जी के चोरी और प्रायश्चित की बात सोच कर मेरा मन और भी निर्मल होता गया |
जाड़े के दिन थे अंदर सर्दी लग रही सो बाहर निकला, बाहर कोई गेंद से खेल रहा था, कोई किसी से रेस लगा रहा था, सुनहरी धुप थी, धुप में कोमलता का अहसास हो रहा था, गांधीजी को बचपन से ही टहलने की आदत थी सोच कर मैंने भी विवादित मैदान में टहलना शुरू किया, गांधीजी की बातें मन में घुमड़ रही थी, दूसरों की क्रियाकलापों का अवलोकन करते हुए ऐसे मौसम में बहुत अच्छा अहसास हो रहा था, टहलते हुए जब मैं विवादित मैदान के दूसरे पक्ष के घर के पास पंहुचा तो देखा उनके घर पर जाम के पेड़ पर बहुत से फल लगे हुए थे, कुछ बच्चे फल के लालच में उन पर पत्थरों से निशाना साध रहे थे, उनकी निशानेबाजी मुझे रोचक लग रही थी सो मेरे टहलने की गति यहा पर कम होती गयी, हालांकि मुझे फलों का कोई लालच नहीं था पर मेरे मन को पत्थरों का पेड़ के पत्तों से टकराना और फल सिर्फ हिल के रह जाना फिर बच्चों का पत्थर लाना फिर से कोशिश करना सुखद लग रहा था | तभी घर से एक औरत निकलती है और बच्चो को पकड़ने का असफल प्रयास करती है, मै पुनः अपने गति पर आ जाता हूँ और कहीं और नया देखने का प्रयास करता हूँ, और औरत के बच्चों को डांटने की आवाज़ कान में आती रहती है पर मै इससे बेपरवाह अपनी धुन में टहलता हुआ आगे बढ़ता हूँ और मेरे ध्यान से औरत वाली बात उतर जाती है और मै टहलते हुए उसके घर के सामने से गुजर रहा था तभी मुझे जमीन पर एक फल गिरा हुआ दिखा, पहले तो बिना कुछ सोचे मैं आगे बढ़ने लगा पर गांधी वाली निर्मलता की ठंडकता लगते ही बिना ज्यादा इस पर विचार किये मैंने उसे उस औरत को वापस करने की निश्चय किया, फल उसके घर के सामने की पड़ा हुआ था द्रुतगति से उस फल तक पंहुचा और झुक कर फल को उठाया तो कुछ शोर सुनाई दिया ,देखा तब सही वस्तुस्थिति का बोध हुआ की वो फल सभी बच्चो के नजर में था सभी उसकी ताक में थे पर औरत के मैदान में होने के कारण कोई वहां तक पहुच पाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था, बच्चे फल हाथ से जाने से नाखुश थे की हमारी मेहनत और फल किसी और को, सो उन्होंने चिल्ला कर औरत को बताना चाहा और मै फल वाले जगह से सही तरीके से फल हाथ में ले कर खड़ा भी न हो पाया था की वह औरत द्रुतगति से मेरे सामने पहुच गयी थी, उसने गुस्से से मेरा हाथ मरोड़ा डर से और उसकी ताकत से मेरे हाथ से फल तो छुट गया और मैंने बचने हेतु सफाई देना चाहा की मैं ये फल आपको देना चाहता था लेकिन बच्चो की शोर से और उस महिला की डांट से जो भी मेरे मुख से निकला वो शायद ही किसी के कर्ण पटलो को स्पर्श कर पाया हो |
अब महिला ने मेरे हाथों को मरोड़े हुए मेरे न चाहते हुए भी शाला परिसर में प्रवेश किया, मै जैसे अपने आप घसीटा चला जा रहा था, उस गिरे हुए फल क्या क्या हुआ पता नहीं पर ऐसी विकट परिस्थिति की मैंने कभी कल्पना नहीं की थी, कुछ बच्चे उत्सुकता वश पीछे पीछे चले आ रहे थे हाँ पर उस महिला से पर्याप्त दुरी बनाते हुए, महिला बहुत गुस्से में थी उसने मुझे प्राचार्य के कमरे में ले जा कर ही मुक्त किया, और प्राचार्य से भी ऊँची आवाज़ में शिकायत करने लगी, उनके बीच क्या क्या बात होने लगी ये तो याद नहीं पर गलती स्कूल वालो की थी इसलिए प्राचार्य महोदय उनको आश्वासन देने में लगे थे, महिला जब थोड़ी ठंडी होने लगी तब प्राचार्य जी ने मुझे बाहर इंतजार करने को कहा और महिला को बैठने को कहा, मैंने कोई गलती नहीं की थी तब भी मेरा चेहरा अपराधीयों की तरह लटक गया था, मै जहाँ घंटी लटकी होती है वहां बेंच पर बैठ गया इस पर चपरासी के सिवा मैंने उसी को बैठा देखा है जिसे खेलते हुए कोई चोट लग जाती थी , चपरासी मरहम पट्टी के लिए बच्चो को इसी बेंच पर बिठाता था |
अभी भी बच्चो का झुण्ड दुरी बना कर मुझे उत्सुकता वश देखे जा रहा था, मैंने झुण्ड में कोई चेहरा पहचाने की कोशिश की तो सुनील नजर आया, जो की नम्बरों में मुझसे पीछे रहता था पर जब भी मै स्कूल नहीं जाता था उसी की कॉपी ले कर आता था, सुनील के साथ ही एक और विक्की जिसे मार खाने का काफी अनुभव था मेरे करीब आया, मैंने पहले न तो कभी ऐसी स्थिति देखी थी न सुनी थी पर विक्की ने बताया की परसों भी एक लड़के को वो महिला पकड़ लायी थी उस समय पटेल सर के पास उसने शिकायत की थी और पटेल सर ने उस बच्चे को खूब मारा और उसके घर वालों को बुलवाया भी, मेरी तो मार के नाम से ही घिग्घी बंध गयी, पहले अभी की तरह बच्चों को मारने पर इतना बवाल नहीं उठता था, मैंने कभी सजा का सामना किया नहीं था, विक्की आगे बताने लगा प्राचार्य कभी किसी बच्चे को मारते नहीं पर वो दूसरे सर को सजा देने का काम सौप देते हैं, शायद पटेल सर को ही दे दे, पटेल सर के मार के नाम से मेरे पैर ठन्डे पड़ गए, दिल जोरो से धड़कने लगा और घर में जो बेज्जती उसका डर अलग |
अब लंच खत्म होने की पहली बेल बज चुकी थी और सारे बच्चे जो झुण्ड लगाये खड़े थे अब जा चुके थे अब भी सुनील मेरे पास खड़ा था और दूसरी बेल बजते ही वो भी चला गया, और अब ऑफिस के गलियारे में सन्नाटा छा गया, कुछ-कुछ सर लोगो की पढाने की आवाज़ आने लगी, इस समय मैं पहले कभी क्लास से बाहर नहीं था, अब वो महिला भी संतुष्ट भाव चेहरे में लिए चली गयी अब मेरी पेशी थी, एक बार फिर पैरों में बहुत ठण्ड का अहसास हुआ और मैंने अपनी आखें बंद करके सोचा की कैसे प्राचार्य महोदय को समझाया जाए की मैंने पत्थर नहीं मारा था, मेरे मन में तरह तरह के सवाल आने लगे की अगर सीधे पटेल सर को मारने को कह दे तो और पटेल सर कुछ सुनने को ही इंकार कर दे तो, अब मैंने फिर डर के मारे आँखे बंद किया तो महात्मा गाँधी के शब्द मेरे कानो में गूंजने लगे “डर मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन होता है” जब मैंने कोई गलती नहीं की है तो डरना क्या ,अब मैंने डर को अलविदा कह दिया और क्या कहना है वह सोचने लगा |
सत्य के प्रयोग के उधेड़बुन में पता नहीं चला कब एक के बाद एक तीन विषयों की क्लास निकल गयी और छुट्टी की घंटी बज गयी और सुनील और विक्की को अपनी आँखों के सामने पाया, दोनों मेरी किस्मत पर अचम्भा करते हुए कह रहे थे तू बच गया अब चल घर,कल सन्डे है और सोमवार तक सब भूल जायेंगे,मै इससे पहले की कुछ समझ पाता मेरा बैग किसी ने मेरी पीठ पर चढा दिया और कुछ न करते करते हुए भी मैदान तक पहुच गया, अब लगा जैसे सिर की नसों में जैसे दिल उतर गया हो ,एक ओर बिना सच-झुट बोले बिना मार खाए साफ़ बच निकलने का मौका था तो दूसरी ओर प्राचार्य की आज्ञा का पालन कर मार खाया जा सकने का विकल्प था, मैंने यह बात दोस्तों से पूछनी की सोची तो कह नहीं पाया और मेरे बुद्धूपन पर मजाक उड़ने का भी भय था, स्कूल के गेट तक पहुचते-पहुचते मेरा निर्णय हो चुका था मैं रुक कर वापस मुड़ने को हुआ तो मित्रों की सवाल भरी नजर मेरे चेहरे पर पड़ी और मैंने झट कहा शायद किताब छुट गयी ले के आता हूँ और वापस स्कूल की ओर मैदान में दौड लगा दी, और जा कर प्राचार्य से सब कुछ कह दिया, उसके बाद प्राचार्य ने मुझसे क्या कह कर जाने को कहा ये शायद डर के कारण याद नहीं रहा मुझे पर शायद खुश ही हुए थे वो ,मैंने वापस आ कर ये बात घर में भी बताई पर शायद कोई समझ न सका, मित्रों को बताने की बात तो बहुत दूर थी बस मेरे मानस पटल पर ये बात किसी फिल्म की तरह आज भी अंकित है |
आज भी यह घटना मेरे लिए बहुत से जगहों पर प्रेरणा स्त्रोत की तरह है | इस घटना को लिखने के दौरान एक बार फिर से “सत्य का प्रयोग” पढ़ डाला | वैसे तो सत्य की महत्ता का अहसास आगे और भी हुआ पर पोस्ट ज्यादा लंबा खिचता जा रहा है, फिर कभी आपके सामने लाऊंगा उसे |
२४ नवम्बर २०१० को हमारे विद्यालय के शिक्षक श्री एस.आर.साहू का सड़क दुर्घटना में निधन हो गया, साहू सर हमें फिजिक्स और मैथ्स पढाया करते थे, उनके मार्गदर्शन ने अनेक छात्रों का भविष्य उज्वल किया है आईये हम उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें |
सजल नेत्रों और भारी मन से विनम्र श्रद्धांजलि !
सजल नेत्रों और भारी मन से विनम्र श्रद्धांजलि !
swargiy sahiji ke nidhan par gahara dukh hua....bahut badhiya post...subhkaamanaayen.
जवाब देंहटाएंSahu sir ke nidhan par mujhe bhi bahut dukh hai,
जवाब देंहटाएंHamare school ke aur teacher kam ho gaye.
Bhagavan unki Atma ko shanti pradan karen
Post kafi sanvedni hain
Kayi baar hamare zeewan me aisa ho jata hai ki galti na karne pe bhi saza mil jati hai, par ye bhi ek bahut bada sach hai ki Satya ka prayog karne par galti hote hue bhi chhama mil jati hai........
जवाब देंहटाएंThe way in which you have presented your thoughts is excellent.
bahut badiya.....
जवाब देंहटाएं