कभी-कभी सोचने लगता हूँ क्यों सुबह उठूँ, क्यों ऑफिस जाऊ, क्यों न जो
अच्छा लगता है वही करूँ, क्यूँ बॉस से डांट सुनने सड़े से ऑफिस जाऊं, क्यूँ न दिन
भर आराम किया जाए, लैपटॉप पर फिल्म देखा जाये, अच्छी किताब पढ़ी जाए, रोज सुबह
इन्ही सवालों से रूबरू होना पड़ता है, आज सुबह भी ये सोचते बिस्तर पर 9 पड़ा हुआ हूँ,
घर वाले और दोस्त कहते हैं आलसी है लापरवाह है, पर कारण ये नहीं है ऐसा लगता है,
पर अगर कारण ढूँढना भी चाहूँ तो अक्सर उन तमाम गूढ़ रहस्यों और ईश्वर के आस्तित्व
के सवालों से घिर जाता हूँ, और कुछ न पाने की स्थिति में भौतिकता और वस्तुवाद का
सहारा ले कर इनसे मुक्ति पाता हूँ, और ये सोच कर के सोचना बंद कर देता हूँ थोड़ी
देर जो अच्छा लगता है वो करूँ फिर थोड़ी देर जो अच्छा नहीं लगता है वो कर लेना
चाहिए, नामुराद ज़िन्दगी में बैलेंस बना कर रखना चाहिए | पहले भी स्कूल के दिनों
में ऐसी समस्याओं से चार होना पड़ता था, पर उस समय घर वालों के जबरदस्त दबाव के आगे
एक न चलती थी | स्कूल न जाने से सम्बंधित एक वाकया याद है मुझे |
एक बार की बात है मैं बहुत छोटा था शायद दूसरी या तीसरी में, मुझे बचपन
की सभी घटनाएँ तो याद नहीं पर कुछ घटनायें बिल्कुल सचित्र याद है जैसे कल की हो,
उस समय की याद करता हूँ तो ऐसा लगता है इतने समय बाद भी मेरे अन्दर कुछ चीजें आज
भी वैसे ही हैं जैसे पहले हुआ करती थी, मेरे स्वाभाव में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है,
उस समय ऑटो रिक्शा या बस का प्रचलन नहीं था, हम बच्चे स्कूल रिक्शा से जाया करते
थे, रिक्शा एक माचिस की डिबिया जैसे हुआ करते थे, जिसमे 8-10 बच्चे बैठ सकते थे वो
बात अलग है की क्षमता से अधिक बच्चे उसमे ठूंस-ठूंस के भरे जाते थे, अभी कुछ ही
दिन पहले वो डब्बेबंद रिक्शा बड़े दिनों बाद नजर आया था, देख कर उन्ही दिनों की याद
आ गयी, उस रिक्शे को हम डब्बा वाला रिक्शा कहते थे, हमारे स्कूल में 12 रिक्शे थे,
सभी में नंबरिंग थी हमारे यहाँ जो रिक्शा मुझे लेने आता था उसका नंबर 11 था, सबसे
ज्यादा बच्चे ढो कर यही रिक्शा लाता था, और हमारे रिक्शा वाले भैया का नाम था
परमानन्द, हम बच्चे इनकी भी क्रिकेटर्स की तरह इनकी भी रैंकिंग तय करते थे, इसमें
हमारे परमानन्द भैया का रैंक प्रथम था, इसे गैप न करने, अच्छे व्यवहार और समय पर लाने ले जाने के कारण ये रैंकिंग मिली
थी, परमानन्द भैया बच्चों के प्रिय थे, 11 नंबर का रिक्शा कई हाथों से हो कर गुजरा
था और परमानन्द भैया के हाथों में आकर ठहर गया था, तीन रिक्शे वालों का नाम तो अभी
भी याद है अशोक, दीपक और रहीम, अशोक को समय पर न आने और ज्यादा छुट्टी पर रहने की
वजह से स्कूल ने निकला था और उसके बाद दीपक को उसके व्यव्हार की वजह से, दीपक की
शिकायत तो मेरे दादी ने भी की थी, उसके बारे में तो ज्यादा याद नहीं पर याद है वो
स्कूल से घर लाने के बाद बच्चों के बैग को रिक्शे से नीचे पटक देता था, अभी कुछ ही
दिनों पहले वो मुझे एक दुकान पर दिखा था बमुश्किल मैं पहचान पाया उसे, बहुत बूढा हो
गया था, उसकी नीली आखों के वजह से उसे “कर्रा”(छत्तीसगढ़ी में नीली आँखों वाला) कहा
जाता था |
सुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंआपका मैं अपने ब्लॉग ललित वाणी पर हार्दिक स्वागत करता हूँ मैंने भी एक ब्लॉग बनाया है मैं चाहता हूँ आप मेरा ब्लॉग पर एक बार आकर सुझाव अवश्य दें...
:)
जवाब देंहटाएंहमारे कितने दोस्तों के ऐसी हरकत रही है....आपने याद दिला दिया वो सब..और डब्बेबंद रिक्शा....! :)
बाईदवे, स्कूल ना जाने के बारे में मैं नहीं कहूँगा कुछ...बहुत बंक किया है स्कूल मैंने ! :)