रविवार, जनवरी 26, 2014

ये कम्बक्त मन..



कभी-कभी सोचने लगता हूँ क्यों सुबह उठूँ, क्यों ऑफिस जाऊ, क्यों न जो अच्छा लगता है वही करूँ, क्यूँ बॉस से डांट सुनने सड़े से ऑफिस जाऊं, क्यूँ न दिन भर आराम किया जाए, लैपटॉप पर फिल्म देखा जाये, अच्छी किताब पढ़ी जाए, रोज सुबह इन्ही सवालों से रूबरू होना पड़ता है, आज सुबह भी ये सोचते बिस्तर पर 9 पड़ा हुआ हूँ, घर वाले और दोस्त कहते हैं आलसी है लापरवाह है, पर कारण ये नहीं है ऐसा लगता है, पर अगर कारण ढूँढना भी चाहूँ तो अक्सर उन तमाम गूढ़ रहस्यों और ईश्वर के आस्तित्व के सवालों से घिर जाता हूँ, और कुछ न पाने की स्थिति में भौतिकता और वस्तुवाद का सहारा ले कर इनसे मुक्ति पाता हूँ, और ये सोच कर के सोचना बंद कर देता हूँ थोड़ी देर जो अच्छा लगता है वो करूँ फिर थोड़ी देर जो अच्छा नहीं लगता है वो कर लेना चाहिए, नामुराद ज़िन्दगी में बैलेंस बना कर रखना चाहिए | पहले भी स्कूल के दिनों में ऐसी समस्याओं से चार होना पड़ता था, पर उस समय घर वालों के जबरदस्त दबाव के आगे एक न चलती थी | स्कूल न जाने से सम्बंधित एक वाकया याद है मुझे |




एक बार की बात है मैं बहुत छोटा था शायद दूसरी या तीसरी में, मुझे बचपन की सभी घटनाएँ तो याद नहीं पर कुछ घटनायें बिल्कुल सचित्र याद है जैसे कल की हो, उस समय की याद करता हूँ तो ऐसा लगता है इतने समय बाद भी मेरे अन्दर कुछ चीजें आज भी वैसे ही हैं जैसे पहले हुआ करती थी, मेरे स्वाभाव में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है, उस समय ऑटो रिक्शा या बस का प्रचलन नहीं था, हम बच्चे स्कूल रिक्शा से जाया करते थे, रिक्शा एक माचिस की डिबिया जैसे हुआ करते थे, जिसमे 8-10 बच्चे बैठ सकते थे वो बात अलग है की क्षमता से अधिक बच्चे उसमे ठूंस-ठूंस के भरे जाते थे, अभी कुछ ही दिन पहले वो डब्बेबंद रिक्शा बड़े दिनों बाद नजर आया था, देख कर उन्ही दिनों की याद आ गयी, उस रिक्शे को हम डब्बा वाला रिक्शा कहते थे, हमारे स्कूल में 12 रिक्शे थे, सभी में नंबरिंग थी हमारे यहाँ जो रिक्शा मुझे लेने आता था उसका नंबर 11 था, सबसे ज्यादा बच्चे ढो कर यही रिक्शा लाता था, और हमारे रिक्शा वाले भैया का नाम था परमानन्द, हम बच्चे इनकी भी क्रिकेटर्स की तरह इनकी भी रैंकिंग तय करते थे, इसमें हमारे परमानन्द भैया का रैंक प्रथम था, इसे गैप न करने, अच्छे व्यवहार  और समय पर लाने ले जाने के कारण ये रैंकिंग मिली थी, परमानन्द भैया बच्चों के प्रिय थे, 11 नंबर का रिक्शा कई हाथों से हो कर गुजरा था और परमानन्द भैया के हाथों में आकर ठहर गया था, तीन रिक्शे वालों का नाम तो अभी भी याद है अशोक, दीपक और रहीम, अशोक को समय पर न आने और ज्यादा छुट्टी पर रहने की वजह से स्कूल ने निकला था और उसके बाद दीपक को उसके व्यव्हार की वजह से, दीपक की शिकायत तो मेरे दादी ने भी की थी, उसके बारे में तो ज्यादा याद नहीं पर याद है वो स्कूल से घर लाने के बाद बच्चों के बैग को रिक्शे से नीचे पटक देता था, अभी कुछ ही दिनों पहले वो मुझे एक दुकान पर दिखा था बमुश्किल मैं पहचान पाया उसे, बहुत बूढा हो गया था, उसकी नीली आखों के वजह से उसे “कर्रा”(छत्तीसगढ़ी में नीली आँखों वाला) कहा जाता था | 
        
रोज सुबह मम्मी मुझे स्कूल के लिए तैयार करती थी, और रिक्शे के न आने तक हम आस पास वाले बच्चे खेला करते थे, उस दिन भी रोज की तरह स्कूल जाने का मन नहीं था, मन में कुछ नया सुझा, क्यों न रिक्शा आने के समय कही छुप जाया जाए, और रिक्शे के चले जाने के बाद घर पंहुचा जाए, ऐसा कभी किया नहीं था, रिक्शे के आने का नियत समय था, ठीक उसके आने के समय पर मैं ऐसी जगह छुप गया जहाँ से मुझे ढूंढा ना जा सके, रिक्शा आने पर खूब ढूंढा गया पर मैं रिक्शे के चले जाने के बाद प्रकट हुआ, खूब धुनाई हुई पहले तो, फिर दूसरे रिक्शे में मम्मी मुझे स्कूल तक पहुँचाने गयी, और स्कूल न जाने का ये रास्ता हमेशा के लिए बंद कर दिया गया | मम्मी का कहा गया ये शब्द इतने सालों बाद भी जस का तस याद है, आज अगर तुझे स्कूल नहीं पहुचाया तो तू फिर से कभी ऐसा करने की सोचेगा | और वाकई उस घटना के बाद मेरे मन में कभी नहीं आया की ऐसी हरकत की जाए, भले स्कूल न जाने का मन होता था तो मैं मम्मी से कह देता था, फिर जाना न जाना मम्मी का निर्णय होता था |


2 टिप्‍पणियां:

  1. :)

    हमारे कितने दोस्तों के ऐसी हरकत रही है....आपने याद दिला दिया वो सब..और डब्बेबंद रिक्शा....! :)
    बाईदवे, स्कूल ना जाने के बारे में मैं नहीं कहूँगा कुछ...बहुत बंक किया है स्कूल मैंने ! :)

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मेरे ब्लॉग पर आ कर अपना बहुमूल्य समय देने का बहुत बहुत धन्यवाद ..