वो पुल आज भी जहाँ का तहां खड़ा है,
किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति लिए,
जैसे पहले हुआ करता था,
उस पुल पर जाने से आज भी जी घबराता है,
तमाम मजबूरियां गिना कर मैं उसे अकेले पुल पर छोड़ आया था,
वह मुझे जाते देखती रही,
शायद पुकारती तो रुक जाता,
नदी के उफान से शोर भी था,
मैं आज भी सोचता हूँ,
उसने मुझे पुकारा था की नहीं..
पुकारा होगा.......
जवाब देंहटाएंतभी तो याद आता है वो पुल...वो दिन...
सुन्दर रचना...
अनु
मैं यह सोचकर उसके दर से उठा था। …
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिखा !